Indra's_net

इन्द्र का जाल

Indra's net

(Buddhist philosophical metaphor)

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इन्द्रजाल: शून्यता, परस्पर निर्भरता और पारस्परिक व्यापन का प्रतीक

"इन्द्रजाल" (जिसे "इन्द्र के रत्न" या "इन्द्र के मोती" भी कहा जाता है, संस्कृत में "इन्द्रजाल") बौद्ध दर्शन में शून्यता (शून्यता), प्रतित्यसमुत्पाद (परस्पर निर्भर उत्पत्ति) और पारस्परिक व्यापन की अवधारणाओं को स्पष्ट करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक रूपक है।

इस रूपक का सबसे पहला उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। इसे तीसरी शताब्दी में महायान स्कूल द्वारा "बुद्धावतंसक सूत्र" में और बाद में छठी से आठवीं शताब्दी के बीच हुआयन स्कूल द्वारा विकसित किया गया था।

इन्द्रजाल का अर्थ:

इन्द्रजाल एक विशाल जाल का वर्णन करता है जिसमें प्रत्येक जाल बिंदु एक रत्न से सजा हुआ है। प्रत्येक रत्न सभी अन्य रत्नों को प्रतिबिंबित करता है, और इस प्रकार प्रत्येक रत्न में पूरे जाल का प्रतिबिंब होता है। यह रूपक यह दर्शाता है कि:

  • शून्यता: कोई भी चीज अपने आप में मौजूद नहीं है, बल्कि दूसरे पर निर्भर करती है। प्रत्येक रत्न अपने अस्तित्व के लिए पूरे जाल पर निर्भर करता है, जैसे सभी चीजें अन्य चीजों पर निर्भर करती हैं।
  • प्रतित्यसमुत्पाद: सभी चीजें अन्य चीजों के कारण उत्पन्न होती हैं। प्रत्येक रत्न दूसरे रत्न को प्रतिबिंबित करने के कारण दिखाई देता है, जैसे सभी चीजें अन्य चीजों के कारण उत्पन्न होती हैं।
  • पारस्परिक व्यापन: सभी चीजें एक-दूसरे में अंतर्निहित हैं। प्रत्येक रत्न में पूरे जाल का प्रतिबिंब होता है, जैसे सभी चीजें एक-दूसरे में अंतर्निहित हैं।

इन्द्रजाल का महत्व:

इन्द्रजाल का रूपक बौद्ध दर्शन की कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाओं को समझने में मदद करता है। यह दर्शाता है कि दुनिया एक जटिल और परस्पर जुड़ी हुई प्रणाली है, जहाँ सभी चीजें एक-दूसरे पर निर्भर करती हैं और एक-दूसरे में अंतर्निहित हैं। यह हमें अपने आसपास की दुनिया को एक नए दृष्टिकोण से देखने और सभी चीजों के बीच के संबंधों को समझने में मदद करता है।


Indra's net is a metaphor used to illustrate the concepts of Śūnyatā (emptiness), pratītyasamutpāda, and interpenetration in Buddhist philosophy.



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