
जैन धर्म में अहिंसा
Ahimsa in Jainism
(Fundamental principle in Jainism)
Summary
अहिंसा: जैन धर्म का आधारभूत सिद्धांत (हिंदी में विस्तार से)
जैन धर्म में, अहिंसा (संस्कृत: अहिंसा) एक आधारभूत सिद्धांत है जो इसके नैतिकता और सिद्धांत का आधार स्तंभ है। अहिंसा का अर्थ है किसी भी प्राणी को कोई भी हानि न पहुँचाना, चोट न पहुँचाना और न ही किसी भी जीव को नुकसान पहुँचाने की इच्छा रखना। शाकाहार, और जैनियों के अन्य अहिंसक व्यवहार और अनुष्ठान, अहिंसा के सिद्धांत से ही प्रेरित हैं।
जैन ग्रंथों में अहिंसा के सिद्धांत के पाँच विशिष्ट उल्लंघन बताए गए हैं - जानवरों को बाँधना, पीटना, अंगों को काटना, अधिक भार डालना, भोजन और पानी रोकना।
जैन धर्म में अहिंसा की अवधारणा अन्य दर्शनों में पाई जाने वाली अहिंसा की अवधारणा से बहुत अलग है।
आमतौर पर हिंसा को दूसरों को नुकसान पहुँचाने से जोड़ा जाता है। लेकिन जैन दर्शन के अनुसार, हिंसा का तात्पर्य मुख्य रूप से स्वयं को चोट पहुँचाने से है - ऐसा व्यवहार जो आत्मा की मोक्ष (जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति) प्राप्त करने की क्षमता को बाधित करता है। साथ ही, यह दूसरों के प्रति हिंसा का भी प्रतीक है क्योंकि यह दूसरों को नुकसान पहुँचाने की प्रवृत्ति है जो अंततः व्यक्ति की अपनी आत्मा को नुकसान पहुँचाती है।
इसके अलावा, जैन धर्म अहिंसा की अवधारणा को न केवल मनुष्यों तक बल्कि सभी जानवरों, पौधों, सूक्ष्म जीवों और जीवन या जीवन क्षमता वाले सभी प्राणियों तक विस्तारित करता है। सारा जीवन पवित्र है और हर किसी को अपनी अधिकतम क्षमता तक निडर होकर जीने का अधिकार है। जीवित प्राणियों को उन लोगों से डरने की ज़रूरत नहीं है जिन्होंने अहिंसा का व्रत लिया है। जैन धर्म के अनुसार, प्राण रक्षा, जिसे अभयदान भी कहा जाता है, सर्वोत्तम दान है जो कोई व्यक्ति कर सकता है।
अहिंसा केवल शारीरिक हिंसा की अनुपस्थिति का संकेत नहीं देती है, बल्कि किसी भी प्रकार की हिंसा में शामिल होने की इच्छा की अनुपस्थिति का भी संकेत देती है। जैनियों ने सदियों से शाकाहार और अहिंसा की पुरजोर वकालत की है।