
गणधर
Ganadhara
(Disciples of Jain Tirthankara)
Summary
गणधर: जैन धर्म में प्रमुख शिष्य
जैन धर्म में, गणधर शब्द का प्रयोग किसी तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य के लिए किया जाता है। समवसरण में, तीर्थंकर बिना छुए (लगभग दो इंच ऊपर) एक सिंहासन पर विराजमान होते हैं। तीर्थंकर के चारों ओर, गणधर बैठते हैं।
दिगंबर परंपरा के अनुसार, केवल असाधारण प्रतिभा और सिद्धि (ऋद्धि) वाला शिष्य ही तीर्थंकर की अनेकांत शिक्षाओं को पूरी तरह से, बिना किसी संदेह, भ्रम या गलतफहमी के आत्मसात कर सकता है। तीर्थंकर द्वारा अपने उपदेश देने से पहले समवसरण में ऐसे शिष्य की उपस्थिति अनिवार्य है।
गणधर दिव्य ध्वनि (दिव्यध्वनि) की व्याख्या करते हैं और उसे अन्य लोगों तक पहुँचाते हैं, जिसके बारे में जैन धर्म का दावा है कि यह तीर्थंकर के शरीर से तब निकलती है जब वे उपदेश देते हैं।
जैन धर्म के मठवासी संघ को गण नामक कई क्रमों या टुकड़ियों में विभाजित किया गया है, जिनमें से प्रत्येक का नेतृत्व एक गणधर करता है।
20 वीं शताब्दी में, ओडिशा के मयूरभंज जिले में तीर्थंकरों और गणधरों को दर्शाने वाली मूर्तियाँ मिली थीं।
थोड़ा और विस्तार से:
- समवसरण: यह एक दिव्य सभा स्थल होता है जहाँ तीर्थंकर अपने उपदेश देते हैं।
- अनेकांत: यह जैन धर्म का एक मुख्य सिद्धांत है जो सत्य के बहुआयामी स्वरूप को स्वीकार करता है।
- दिव्यध्वनि: यह एक अलौकिक ध्वनि है जो तीर्थंकर के उपदेशों को सभी जीवों तक पहुँचाती है, चाहे वे किसी भी भाषा को समझते हों।
गणधर तीर्थंकर के सबसे निकट और विश्वसनीय शिष्य होते हैं। वे तीर्थंकर के ज्ञान और शिक्षाओं को समझने और उनका प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।