
निर्जरा
Nirjara
(One of the seven fundamental principles in Jain philosophy)
Summary
निर्जरा: जैन धर्म में कर्मों से मुक्ति का मार्ग
निर्जरा जैन दर्शन के सात मूलभूत सिद्धांतों या तत्वों में से एक है। इसका अर्थ है आत्मा से संचित कर्मों का क्षय या निष्कासन। जैन धर्म के अनुसार, मोक्ष या मुक्ति प्राप्त करने के लिए, जन्म-मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र संसार से मुक्ति पाने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है।
"निर्जरा" का शाब्दिक अर्थ है "गिरना"। इस अवधारणा का वर्णन पहली बार दूसरी शताब्दी ईस्वी में आचार्य उमास्वती द्वारा रचित जैन ग्रंथ, तत्त्वार्थ सूत्र (यथार्थ की वास्तविक प्रकृति) के अध्याय 9 में मिलता है। यह ग्रंथ जैन धर्म के श्वेतांबर और दिगंबर, दोनों ही संप्रदायों में प्रामाणिक माना जाता है। बाद में, इसका उल्लेख 10 वीं शताब्दी के जैन ग्रंथ द्रव्यसंग्रह (पदार्थों का संग्रह) में भी मिलता है, जिसे आचार्य नेमिचंद्र ने लिखा था।
निर्जरा को और विस्तार से समझें:
हिंदी में:
निर्जरा का अर्थ है कर्मों का नाश। जैन धर्म के अनुसार, हम जो भी कर्म करते हैं, वे हमारे आत्मा से जुड़ जाते हैं और हमारे भविष्य को निर्धारित करते हैं।
निर्जरा के दो मुख्य तरीके हैं:
- तप: तपस्या और संयम के माध्यम से नए कर्मों के बंधन को रोकना।
- संवर: पहले से जुड़े कर्मों को भोग कर उनसे मुक्ति पाना।
तपस्या में उपवास, मौन, ध्यान आदि आते हैं, जबकि संवर में धैर्य, क्षमा, संतोष जैसे गुणों का पालन शामिल है।
निर्जरा, मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण चरण है। जब आत्मा सभी कर्मों से मुक्त हो जाती है, तो वह शुद्ध और पूर्ण हो जाती है और मोक्ष को प्राप्त करती है।
सरल शब्दों में:
मान लीजिए कि आपका मन एक साफ शीशा है। आप जो भी कर्म करते हैं, वह उस शीशे पर एक दाग की तरह लग जाता है। निर्जरा उस शीशे को साफ करने की प्रक्रिया है।