मिच्छामी दुक्कड़म
Micchami Dukkadam
(Spiritual phrase in Jainism)
Summary
मिच्छामि दुक्कडम्: क्षमा याचना का प्राचीन संस्कार
"मिच्छामि दुक्कडम्" (Michchhāmi Dukkaḍaṃ) एक प्राचीन भारतीय प्राकृत भाषा का वाक्यांश है जो ऐतिहासिक जैन ग्रंथों में पाया जाता है। इसका संस्कृत समकक्ष "मिथ्या मे दुष्कृतम्" है और दोनों का शाब्दिक अर्थ "जो भी बुरा किया गया है, वह व्यर्थ हो" होता है।
यह वाक्यांश जैन धर्म में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, विशेष रूप से प्रतिक्रमाण अनुष्ठान में जो हर नौ दिन में होता है। यह पर्युषाण के अंतिम दिन भी बोला जाता है जिसे समवत्सरी (श्वेतांबर परंपरा में) या क्षमावानी (दिगंबर परंपरा में) कहा जाता है।
इस वाक्यांश की एक वैकल्पिक व्याख्या भी है, जिसका अर्थ "मेरे सभी अनुचित कार्यों का कोई परिणाम न हो" या "मैं सभी जीवित प्राणियों से क्षमा मांगता हूँ, वे सब मुझे क्षमा करें, मेरी सभी प्राणियों से मित्रता हो और किसी से दुश्मनी न हो" है।
जैन अनुष्ठान में, जैन अपने मित्रों और रिश्तेदारों को इस अंतिम दिन "मिच्छामि दुक्कडम्" कहकर उनसे क्षमा याचना करते हैं।
यह वाक्यांश जैन साधुओं और साध्वीओं के लिए भी महत्वपूर्ण है। प्रतिक्रमाण (चौथा अवश्यका अनुष्ठान) के दौरान, वे इस वाक्यांश का उपयोग अपने पापों के लिए क्षमा याचना करने के लिए करते हैं, खासकर जब वे जैन मंदिरों में तीर्थंकरों की मूर्तियों का पूजन करते हैं।
"मिच्छामि दुक्कडम्" क्षमा मांगने और अपने कार्यों के लिए जिम्मेदारी लेने का एक महत्वपूर्ण जैन संस्कार है जो व्यक्ति और समाज दोनों के बीच सद्भाव और शांति स्थापित करने में मदद करता है।