
नरक (जैन धर्म)
Naraka (Jainism)
(Hell realm in Jainism)
Summary
नरक: जैन धर्म में दुखों का अस्थायी निवास
नरक जैन धर्म में एक ऐसा लोक (realm) है जहाँ अत्यधिक कष्ट और पीड़ा का अनुभव होता है। इसे अक्सर "नर्क" या "पुर्गतोरी" के रूप में अनुवादित किया जाता है, लेकिन अब्राहमिक धर्मों के नर्क से यह अलग है।
अंतर:
- ईश्वरीय सज़ा नहीं: जैन धर्म में, आत्माओं को किसी दिव्य निर्णय या सज़ा के परिणामस्वरूप नरक नहीं भेजा जाता है।
- अनंत नहीं: नरक में रहना अनंत नहीं है, हालाँकि यह आमतौर पर अरबों वर्षों तक चलता है।
नरक में जन्म:
किसी आत्मा का नरक में पुनर्जन्म उसके पिछले कर्मों (शरीर, वाणी और मन के कर्मों) का सीधा परिणाम होता है। वह आत्मा वहाँ तब तक रहती है जब तक उसके कर्मों का फल पूरी तरह से प्राप्त नहीं हो जाता।
मुक्ति:
एक बार कर्मों का फल भोग लेने के बाद, आत्मा को पहले के किसी अच्छे कर्म के कारण उच्च लोकों में पुनर्जन्म मिल सकता है।
विस्तार से:
- जैन मान्यता के अनुसार, हर कर्म का फल मिलता है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा।
- बुरे कर्मों का फल नरक में भोगना पड़ता है, जहाँ अनेक प्रकार के कष्ट झेलने पड़ते हैं।
- नरक में रहने की अवधि कर्मों की गंभीरता पर निर्भर करती है।
- जैन धर्म में सात नरक बताए गए हैं, जिनमें अलग-अलग प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं।
- नरक से मुक्ति का एकमात्र मार्ग है - मोक्ष। मोक्ष प्राप्ति के लिए जैन धर्म में तीन रत्नों - सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण का पालन बताया गया है।
संक्षेप में, जैन धर्म में नरक को एक अस्थायी दंडात्मक स्थान माना जाता है जहाँ आत्मा अपने बुरे कर्मों का फल भोगती है। यह एक निराशाजनक स्थिति नहीं है, बल्कि आत्मा के शुद्धिकरण का एक चरण है, जिसके बाद उसे उच्च लोकों में जन्म लेने का अवसर मिलता है।