Jīva_(Jainism)

जीव (जैन धर्म)

Jīva (Jainism)

(Soul in Jainism)

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जीव (आत्मा) - सरल व्याख्या और विस्तृत जानकारी हिंदी में

जीव, जिसे आत्मा भी कहा जाता है, जैन धर्म में इस्तेमाल होने वाला एक दार्शनिक शब्द है जो आत्मा को दर्शाता है। जैन ब्रह्माण्ड विज्ञान के अनुसार, जीव या आत्मा चेतना का सिद्धांत है और यह तत्वों में से एक है, जो ब्रह्मांड का निर्माण करने वाले मूलभूत पदार्थों में से एक है।

जैसा कि जैन धर्म के विद्वान जगमंदरलाल जी ने बताया है, जैन तत्वमीमांसा ब्रह्मांड को दो स्वतंत्र, शाश्वत, सह-अस्तित्व और अनिर्मित श्रेणियों में विभाजित करती है जिन्हें जीव (आत्मा) और अजीव (गैर-आत्मा) कहा जाता है। जैन धर्म का यह मूल आधार इसे एक द्वैतवादी दर्शन बनाता है।

जैन धर्म के अनुसार, जीव, कर्म, पुनर्जन्म और पुनर्जन्म से मुक्ति की प्रक्रिया कैसे काम करती है, इसका एक अनिवार्य हिस्सा है।

विस्तार से:

  • जीव: जैन दर्शन में जीव को चेतन और सजीव तत्व माना जाता है जो हर प्राणी में विद्यमान रहता है। यह जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है और अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है। जीव के आठ मूल गुण बताए गए हैं - चेतना, ज्ञान, दर्शन, सुख, दुःख, राग, द्वेष और मोह।
  • अजीव: अजीव का अर्थ है 'जो जीव नहीं है'। इसके अंतर्गत पुद्गल (पदार्थ), धर्म, अधर्म, काल, आकाश और सिद्धि को शामिल किया जाता है। ये सभी तत्व अचेतन माने जाते हैं और जीव को प्रभावित करते हैं।
  • कर्म: जैन धर्म में कर्म का अर्थ केवल क्रिया से नहीं बल्कि क्रिया के फल से है। जीव अपने कर्मों के द्वारा सूक्ष्म कर्म कणों को आकर्षित करता है जो उसके साथ जुड़कर उसके भविष्य को निर्धारित करते हैं।
  • पुनर्जन्म: कर्मों के बंधन के कारण जीव बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है। इस चक्र से मुक्ति पाने के लिए जीव को मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करना पड़ता है।
  • मोक्ष: मोक्ष जैन धर्म का अंतिम लक्ष्य है। यह कर्म बंधन से मुक्ति की अवस्था है जहाँ जीव को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है और वह सिद्धि को प्राप्त होता है।

संक्षेप में, जैन धर्म में जीव को एक अमर और चेतन तत्व माना जाता है जो अपने कर्मों के द्वारा अपने भविष्य का निर्माण करता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए जीव को अपने कर्मों को शुद्ध करना होता है और राग-द्वेष से मुक्त होना होता है।


Jīva or Ātman is a philosophical term used within Jainism to identify the soul. As per Jain cosmology, jīva or soul is the principle of sentience and is one of the tattvas or one of the fundamental substances forming part of the universe. The Jain metaphysics, states Jagmanderlal Jaini, divides the universe into two independent, everlasting, co-existing and uncreated categories called the jiva (soul) and the ajiva. This basic premise of Jainism makes it a dualistic philosophy. The jiva, according to Jainism, is an essential part of how the process of karma, rebirth and the process of liberation from rebirth works.



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