
कोरियाई बौद्ध धर्म
Korean Buddhism
(Form of Buddhism)
Summary
कोरियाई बौद्ध धर्म
कोरियाई बौद्ध धर्म, बौद्ध धर्म का एक अनूठा रूप है जो मुख्य रूप से अपनी समग्रतावादी दृष्टिकोण के लिए जाना जाता है। यह दृष्टिकोण, जिसे टोंगबुल्ग्यो ("अंतर्निहित बौद्ध धर्म") कहा जाता है, विभिन्न महायान बौद्ध परंपराओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के उद्देश्य से विकसित हुआ था।
कोरियाई बौद्ध धर्म का विकास उन विसंगतियों को दूर करने के प्रयास से हुआ जो शुरुआती कोरियाई बौद्ध भिक्षुओं को उन महायान शिक्षाओं में दिखाई दीं जो उन्हें विदेशों से प्राप्त हुई थीं। उनका मानना था कि विभिन्न बौद्ध विचारधाराओं के बीच सामंजस्य स्थापित करके ही बौद्ध धर्म की सच्ची समझ हासिल की जा सकती है। इसी सिद्धांत को उन्होंने ह्वाजेंग (和諍) कहा, जिसका अर्थ है "विवादों का सामंजस्य"।
आगमन और विकास:
भारत में उत्पन्न होने के सदियों बाद, पहली शताब्दी ईस्वी में रेशम मार्ग के माध्यम से तिब्बत होते हुए महायान परंपरा चीन पहुंची। चौथी शताब्दी में, तीन राज्यों के काल के दौरान, यह कोरियाई प्रायद्वीप में प्रवेश किया और यहाँ से जापान तक फैल गया। कोरिया में, इसे तीन राज्यों - गोगुरियो (372 ईस्वी), सिला (528 ईस्वी), और बाएकजे (552 ईस्वी) - द्वारा राज्य धर्म के रूप में अपनाया गया।
प्रमुख संप्रदाय:
वर्तमान में, कोरियाई बौद्ध धर्म में सोन वंश का प्रभुत्व है, जिसका प्रतिनिधित्व मुख्य रूप से जोगी और टेगो संप्रदाय करते हैं। कोरियाई सोन का चान शिक्षाओं और जेन से प्रभावित अन्य महायान परंपराओं के साथ एक मजबूत संबंध है। अन्य संप्रदाय, जैसे कि चेओनटे वंश का आधुनिक पुनरुत्थान, जिंगक संप्रदाय (एक आधुनिक गूढ़ संप्रदाय), और नवगठित वोन, ने भी बड़ी संख्या में अनुयायियों को आकर्षित किया है।
पूर्वी एशियाई बौद्ध धर्म पर प्रभाव:
कोरियाई बौद्ध धर्म ने पूर्वी एशियाई बौद्ध धर्म, विशेष रूप से चीनी, वियतनामी, जापानी और तिब्बती बौद्ध विचारों के शुरुआती स्कूलों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
इस प्रकार, कोरियाई बौद्ध धर्म अपनी समग्रतावादी दृष्टिकोण, विभिन्न महायान विचारों के सामंजस्य पर जोर, और पूर्वी एशियाई बौद्ध धर्म पर इसके महत्वपूर्ण प्रभाव के लिए जाना जाता है।