
तत्त्वार्थ सूत्र
Tattvartha Sutra
(Jain religious text)
Summary
तत्त्वार्थ सूत्र: जैन दर्शन का सार
संस्कृत में रचित "तत्त्वार्थ सूत्र", जिसका अर्थ है "तत्त्वों का अर्थ" (जिसे "तत्त्वार्थ-अधिगम-सूत्र" या "मोक्ष-शास्त्र" भी कहा जाता है), जैन धर्म का एक प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसकी रचना आचार्य उमास्वामी ने दूसरी और पाँचवीं शताब्दी ईस्वी के बीच की गई थी।
जैन धर्म में "तत्त्वार्थ सूत्र" को सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रंथों में से एक माना जाता है। यह जैन धर्म की दोनों प्रमुख उप-परंपराओं - दिगंबर और श्वेतांबर - के साथ-साथ अन्य लघु उप-परंपराओं में भी समान रूप से स्वीकार्य है।
यह एक दार्शनिक ग्रंथ है, और जैन धर्म में इसका महत्व हिंदू धर्म में ब्रह्म सूत्र और पतंजलि के योग सूत्र के समान है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों की सूत्र शैली में रचित, यह ग्रंथ 10 अध्यायों में 350 सूत्रों के माध्यम से संपूर्ण जैन दर्शन को प्रस्तुत करता है। 5 वीं शताब्दी से ही इस ग्रंथ पर अनेक टीकाएँ, अनुवाद और व्याख्याएँ लिखी गई हैं।
इसके एक सूत्र, "परस्पर उपग्रहो जीवानाम" को जैन धर्म का आदर्श वाक्य माना जाता है। इसका अर्थ है "जीवों का (कर्तव्य) एक-दूसरे की सहायता करना" या "आत्माएँ एक-दूसरे की सेवा करती हैं"।
"तत्त्वार्थ सूत्र" जैन धर्म के मूलभूत सिद्धांतों की व्याख्या करता है:
- जीव और अजीव: यह ब्रह्मांड को दो मुख्य तत्त्वों - जीव (चेतन) और अजीव (जड़) में विभाजित करता है।
- कर्म सिद्धांत: यह कर्म के सिद्धांत की व्याख्या करता है और बताता है कि कैसे हमारे कर्म हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं।
- मोक्ष: यह मोक्ष (मुक्ति) के मार्ग का वर्णन करता है जो कि कर्मबंधन से मुक्ति का मार्ग है।
- त्रिरत्न: यह सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण के त्रिरत्नों का वर्णन करता है जो मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।
- अहिंसा: यह अहिंसा के सिद्धांत पर जोर देता है जो सभी जीवों के प्रति अहिंसक व्यवहार की वकालत करता है।
"तत्त्वार्थ सूत्र" जैन धर्म को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह जैन धर्म के दर्शन, नैतिकता और आध्यात्मिकता का सार प्रस्तुत करता है।