
बन्ध (जैन धर्म)
Bandha (Jainism)
(Interaction of soul and matter in Jainism (Indian religion))
Summary
Jainism में बंधन: कर्मों का आत्मा से जुड़ाव
बंधन (या कर्म-बंधन) जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो आत्मा और कर्म के बीच के संबंध को दर्शाता है। यह कर्मों के आत्मा से जुड़ने की प्रक्रिया है।
सरल शब्दों में:
मान लीजिए आपका मन एक सफेद कपड़े की तरह है। जब आप कोई अच्छा या बुरा कर्म करते हैं, तो वह कर्म इस कपड़े पर एक दाग की तरह लग जाता है। यही दाग कर्म बंधन है।
विस्तार से:
आस्रव: जब हम अपनी इंद्रियों (जैसे आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा) के माध्यम से बाहरी दुनिया का अनुभव करते हैं, तो हमारे मन में राग-द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह जैसे भाव उत्पन्न होते हैं। यही भाव कर्मों को आकर्षित करते हैं, जिसे आस्रव कहा जाता है।
बंधन: आस्रव के बाद, ये कर्म हमारी आत्मा से जुड़ जाते हैं, ठीक उसी तरह जैसे चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींचता है। यह जुड़ाव ही बंधन कहलाता है।
कर्म बंधन के प्रकार:
जैन धर्म में मुख्य रूप से चार प्रकार के कर्म बंधन बताए गए हैं:
- ज्ञानवरणीय कर्म: यह ज्ञान को ढकने वाला कर्म है।
- दर्शनवरणीय कर्म: यह दर्शन शक्ति को ढकने वाला कर्म है।
- मोहनीय कर्म: यह राग-द्वेष, क्रोध, मोह आदि बढ़ाने वाला कर्म है।
- अंतराय कर्म: यह पुण्य कर्म करने में बाधा उत्पन्न करने वाला कर्म है।
महत्वपूर्ण:
- बंधन के कारण ही आत्मा को बार-बार जन्म-मरण के चक्र में भटकना पड़ता है।
- जैन धर्म का उद्देश्य कर्म बंधन से मुक्ति पाना और मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त करना है।
निष्कर्ष:
जैन दर्शन के अनुसार, कर्म बंधन से मुक्ति पाने के लिए हमें अपने कर्मों पर नियंत्रण रखना होगा। राग-द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह जैसे विकारों को त्यागकर, समभाव से रहकर और सदाचार का पालन करके हम कर्म बंधन को कम कर सकते हैं और मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।