
ऋषु (बौद्ध धर्म)
Risshū (Buddhism)
(School of Nara Buddhism)
Summary
ऋषु संप्रदाय: जापानी बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग (विस्तृत विवरण हिंदी में)
ऋषु (律宗, Risshū), जिसे रित्सु संप्रदाय भी कहा जाता है, जापान में नारा बौद्ध धर्म के छह प्रमुख संप्रदायों में से एक है। यह संप्रदाय "विनय" ग्रंथों पर आधारित है, जो धर्मगुप्तक नामक प्रारंभिक बौद्ध संप्रदाय द्वारा रचित थे।
ऋषु संप्रदाय की स्थापना जापान में एक नेत्रहीन चीनी भिक्षु जियानज़ेन (Jianzhen) ने की थी, जिन्हें जापान में गांजिन (Ganjin) के नाम से जाना जाता है। जापानी भिक्षुओं के अनुरोध पर गांजिन जापान आए और नारा में तोशोदै-जी (Tōshōdai-ji) मंदिर की स्थापना की।
कामाकुरा काल (1185-1333) के दौरान, ऋषु संप्रदाय तोशोदै-जी, कैदान-इन (Kaidan-in), सैदै-जी (Saidai-ji), और सेन्यू-जी (Sennyū-ji) नामक चार शाखाओं में विभाजित हो गया।
हालांकि, मीजी काल (1868-1912) के दौरान, जापानी सरकार के एक आदेश द्वारा ऋषु संप्रदाय को शिंगोन संप्रदाय (Shingon sect) में मिला दिया गया।
आज केवल तोशोदै-जी ही एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसने सरकारी दबाव का विरोध किया और अपनी ऋषु पहचान को बरकरार रखा है।
विस्तृत विवरण:
- विनय: विनय ग्रंथ बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए आचार संहिता और नैतिक नियमों का संग्रह है।
- धर्मगुप्तक: यह एक प्राचीन बौद्ध संप्रदाय था जो दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में अस्तित्व में आया था।
- तोशोदै-जी: यह मंदिर ऋषु संप्रदाय का मुख्य मंदिर है और जापान के सबसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण बौद्ध मंदिरों में से एक है।
- मीजी काल: यह जापान के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दौर था जिसमें देश ने तेजी से आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण का अनुभव किया। इस दौरान सरकार ने बौद्ध धर्म पर अपना नियंत्रण मजबूत करने के लिए कई कदम उठाए, जिसमें संप्रदायों का विलय भी शामिल था।
आज, ऋषु संप्रदाय भले ही जापान में एक छोटा संप्रदाय हो, लेकिन यह विनय पर अपने जोर और गांजिन की विरासत के कारण बौद्ध इतिहास और संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।