Sallekhana

सल्लेखना

Sallekhana

(Voluntarily fasting to death by gradually reducing the intake of food and liquids in Jainism)

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सल्लेखना: जैन धर्म में जीवन का पवित्र अंत

सल्लेखना, जिसे सम्लेखना, संथारा, समाधि-मरण या संन्यास-मरण भी कहा जाता है, जैन धर्म के नैतिक आचार संहिता का एक अनुपूरक व्रत है। यह धीरे-धीरे भोजन और तरल पदार्थों का सेवन कम करके स्वेच्छा से मृत्यु का व्रत है।

सल्लेखना का अर्थ:

  • पापों का क्षय: जैन धर्म में, सल्लेखना को मानवीय कर्मों और शारीरिक इच्छाओं को कम करने का एक तरीका माना जाता है। यह पुनर्जन्म के चक्र को तोड़ने और मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त करने का एक साधन माना जाता है।
  • आत्म-नियंत्रण: इसे आत्महत्या नहीं माना जाता है क्योंकि इसमें किसी भी प्रकार के जहर या हथियार का उपयोग नहीं होता है और न ही यह आवेश में लिया गया कोई निर्णय होता है। यह जीवन के प्रति पूर्ण नियंत्रण और मृत्यु को शांतिपूर्वक स्वीकार करने का प्रतीक है।

सल्लेखना की प्रक्रिया:

  • संकल्प: सल्लेखना व्रत लेने का निर्णय जैन भिक्षु या श्रावक स्वेच्छा से लेते हैं।
  • तैयारी: सल्लेखना व्रत लेने के बाद, व्यक्ति धीरे-धीरे भोजन और पानी का त्याग करता है।
  • अध्ययन और ध्यान: इस दौरान व्यक्ति धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन, ध्यान और प्रार्थना में समय बिताता है।
  • समाधि: अंत में, व्यक्ति शांतिपूर्वक शरीर त्याग देता है।

इतिहास और विवाद:

  • प्राचीन प्रथा: ऐतिहासिक साक्ष्य, जैसे कि निशिधि उत्कीर्णन, बताते हैं कि सल्लेखना प्राचीन काल से जैन धर्म का हिस्सा रही है। राजाओं और रानियों सहित, स्त्री और पुरुष दोनों ने इसका पालन किया है।
  • आधुनिक समय में दुर्लभ: आधुनिक समय में सल्लेखना द्वारा मृत्यु अपेक्षाकृत दुर्लभ घटना है।
  • कानूनी चुनौतियां: जीवन के अधिकार बनाम मरने के अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के दृष्टिकोण से इस प्रथा पर बहस होती रही है।
    • 2015: राजस्थान उच्च न्यायालय ने इसे आत्महत्या मानते हुए इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था।
    • 2016: भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगा दी और सल्लेखना पर से प्रतिबंध हटा दिया।

निष्कर्ष:

सल्लेखना जैन धर्म का एक जटिल और संवेदनशील विषय है। यह मृत्यु और मोक्ष के प्रति जैन दृष्टिकोण को दर्शाता है।


Sallekhana, also known as samlehna, santhara, samadhi-marana or sanyasana-marana, is a supplementary vow to the ethical code of conduct of Jainism. It is the religious practice of voluntarily fasting to death by gradually reducing the intake of food and liquids. It is viewed in Jainism as the thinning of human passions and the body, and another means of destroying rebirth-influencing karma by withdrawing all physical and mental activities. It is not considered a suicide by Jain scholars because it is not an act of passion, nor does it employ poisons or weapons. After the sallekhana vow, the ritual preparation and practice can extend into years.



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