Jain_monasticism

जैन मठवाद

Jain monasticism

(Order of monks and nuns in the Jain community)

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जैन साधुवाद (Jain Monasticism) : एक विस्तृत विवरण हिंदी में

जैन धर्म में, साधुवाद का अर्थ है साधु और साध्वियों का क्रम, जो दो प्रमुख संप्रदायों में विभाजित है: दिगंबर और श्वेतांबर।

प्रमुख सिद्धांत:

हालांकि दोनों संप्रदायों के साधु जीवन के तरीके अलग-अलग हैं, लेकिन उनके प्रमुख सिद्धांत एक समान हैं। दोनों ही संप्रदायों के सभी जैन साधु महावीर स्वामी द्वारा बताए गए पाँच महाव्रतों का पालन करते हैं।

इतिहास:

इतिहासकारों का मानना है कि महावीर स्वामी के मोक्ष (मुक्ति) के लगभग 160 वर्ष बाद, 367 ईसा पूर्व से पहले एक संयुक्त जैन संघ (समुदाय) मौजूद था। समय के साथ, यह समुदाय धीरे-धीरे दो प्रमुख संप्रदायों में विभाजित हो गया। हालांकि, इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि दिगंबरों और श्वेतांबरों के बीच यह विभाजन कब हुआ।

दिगंबर और श्वेतांबर में अंतर:

  • वस्त्र: दिगंबर साधु पूर्ण नग्न रहते हैं, जबकि श्वेतांबर साधु सफेद वस्त्र धारण करते हैं।
  • महिलाओं का मोक्ष: दिगंबर मानते हैं कि महिलाओं को मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुरुष शरीर धारण करना होगा, जबकि श्वेतांबर मानते हैं कि महिलाएं भी अपने वर्तमान जन्म में मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं।
  • आहार: दोनों संप्रदायों के साधु सात्विक भोजन करते हैं, लेकिन दिगंबर साधु खड़े होकर भोजन ग्रहण करते हैं, जबकि श्वेतांबर साधु बैठकर भोजन करते हैं।

महाव्रत:

जैन धर्म के पाँच महाव्रत हैं:

  1. अहिंसा: किसी भी जीव को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचाना।
  2. सत्य: हमेशा सच बोलना।
  3. अस्तेय: चोरी न करना।
  4. ब्रह्मचर्य: संयम का पालन करना।
  5. अपरिग्रह: संपत्ति का मोह न रखना।

जैन साधुवाद का महत्व:

जैन धर्म में साधुवाद को बहुत महत्व दिया जाता है। साधु और साध्वियां अपने जीवन को साधना और तपस्या में बिताते हैं और समाज के लिए आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करते हैं और लोगों को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं।


Jain monasticism refers to the order of monks and nuns in the Jain community and can be divided into two major denominations: the Digambara and the Śvētāmbara. The monastic practices of the two major sects vary greatly, but the major principles of both are identical. Five mahāvratas, from Mahavira's teachings, are followed by all Jain ascetics of both the sects. Historians believe that a united Jain sangha (community) existed before 367 BCE, about 160 years after the moksha (liberation) of Mahavira. The community then gradually divided into the major denominations. However, no evidences indicate when the schism between the Digambaras and the Śvetāmbaras happened.



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