
बोधिधर्म
Bodhidharma
(Semi-legendary founder of Zen Buddhism)
Summary
बोधिधर्म: ध्यान और शाओलिन कुंग फू के जनक (हिंदी में विस्तृत विवरण)
बोधिधर्म, 5वीं या 6वीं शताब्दी ईस्वी में रहने वाले एक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु थे। उन्हें चीन में ज़ेन बौद्ध धर्म के संचारक और पहले चीनी कुलपति के रूप में जाना जाता है। यद्यपि उनके जीवन के बारे में प्रमाणिक जानकारी सीमित है, फिर भी उनकी कहानियाँ किंवदंतियों और मान्यताओं से भरपूर हैं।
उत्पत्ति और प्रारंभिक जीवन:
बोधिधर्म की उत्पत्ति और प्रारंभिक जीवन के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। चीनी ग्रंथों के अनुसार, वे "पश्चिमी क्षेत्रों" से आए थे, जिसका अर्थ मध्य एशिया या भारतीय उपमहाद्वीप हो सकता है। कुछ स्रोत उन्हें "फारसी मध्य एशियाई" बताते हैं, जबकि अन्य उन्हें "एक महान भारतीय राजा का तीसरा पुत्र" मानते हैं। बौद्ध कला में, बोधिधर्म को अक्सर एक क्रोधित, बड़ी नाक वाले, घनी दाढ़ी वाले और चौड़ी आंखों वाले विदेशी व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। ज़ेन ग्रंथों में उन्हें "नीली आंखों वाला बर्बर" (碧眼胡 - Bìyǎnhú) कहा गया है।
चीन में आगमन:
बोधिधर्म के चीन आगमन की तिथि को लेकर भी मतभेद हैं। कुछ शुरुआती विवरणों के अनुसार, वे लियू सोंग राजवंश (420-479 ईस्वी) के दौरान चीन पहुंचे थे, जबकि बाद के विवरणों में उन्हें लियांग राजवंश (502-557 ईस्वी) के दौरान आया हुआ बताया गया है। आधुनिक शोध उन्हें 5वीं शताब्दी ईस्वी की शुरुआत में रखते हैं। वे मुख्य रूप से उत्तरी वेई (386-534 ईस्वी) के क्षेत्र में सक्रिय थे।
शिक्षाएँ और ध्यान:
बोधिधर्म की शिक्षाएँ ध्यान और "लांकावतार सूत्र" पर केंद्रित थीं। उन्होंने आत्म-साक्षात्कार के लिए ध्यान को सर्वोपरि बताया। 952 ईस्वी में रचित "कुलपति हॉल का संकलन" (Anthology of the Patriarchal Hall) बोधिधर्म को गौतम बुद्ध से शुरू होने वाली अटूट परंपरा में 28वें बौद्ध कुलपति के रूप में पहचानता है।
शाओलिन कुंग फू से संबंध:
17वीं शताब्दी की एक अपोक्रिफ़ल कहानी, जो "यिजिन जिंग" नामक एक पुस्तक में पाई जाती है, बोधिधर्म को शाओलिन मंदिर के भिक्षुओं के शारीरिक प्रशिक्षण से जोड़ती है। माना जाता है कि उन्होंने भिक्षुओं को स्वस्थ और ऊर्जावान रखने के लिए शारीरिक व्यायाम और ध्यान की एक प्रणाली सिखाई थी, जो बाद में शाओलिन कुंग फू के रूप में विकसित हुई।
विरासत:
बोधिधर्म ज़ेन बौद्ध धर्म के विकास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, और उन्हें चीन और जापान में बहुत सम्मानित किया जाता है। चीन में उन्हें "दामो" और जापान में "दारुमा" के नाम से जाना जाता है। उनका नाम संस्कृत में "जागृति का धर्म" है। हालांकि उनके जीवन की कई घटनाएँ किंवदंतियों से घिरी हुई हैं, फिर भी ध्यान और आत्म-अनुशासन पर उनके जोर ने पूर्वी एशियाई बौद्ध धर्म को गहराई से प्रभावित किया है।