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चंपत राय जैन

Champat Rai Jain

(Indian Digambara Jain scholar and writer (1867–1942))

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चंपत राय जैन: एक महान दिगम्बर जैन विद्वान और समाज सुधारक

चंपत राय जैन (6 अगस्त 1867 - 2 जून 1942) दिल्ली में जन्मे एक प्रख्यात दिगम्बर जैन विद्वान, लेखक और समाज सुधारक थे। उन्होंने इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई की और वकालत की। 1910 से 1930 के दशक के बीच, वे जैन धर्म के एक प्रभावशाली विद्वान और तुलनात्मक धर्म के लेखक के रूप में उभरे। उन्होंने दिगम्बर ग्रंथों का अनुवाद और व्याख्या की, जिससे जैन धर्म को पश्चिमी दुनिया में समझने में मदद मिली।

1920 के दशक की शुरुआत में, चंपत राय जैन भारत लौट आए और धार्मिक रूप से सक्रिय हो गए। उन्होंने औपनिवेशिक काल के ईसाई मिशनरियों द्वारा जैन धर्म के बारे में फैलाई गई गलतफहमियों का खंडन करते हुए कई निबंध और लेख लिखे। उन्होंने जैन धर्म और ईसाई धर्म के बीच तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किए, जिससे जैन धर्म की विशिष्टता और महत्ता उभर कर सामने आई।

चंपत राय जैन ने 1923 में अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य दिगंबर जैन समुदाय में सक्रिय सुधारों को बढ़ावा देना और दक्षिण भारतीय और उत्तर भारतीय दिगम्बर समुदायों को एकजुट करना था। उन्होंने जैन धर्म पर व्याख्यान देने के लिए विभिन्न यूरोपीय देशों की यात्रा भी की, जिससे जैन धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ।

उनके अमूल्य योगदान के लिए, उन्हें भारत धर्म महामंडल द्वारा "विद्या-वारिधि" (ज्ञान के सागर) की उपाधि से सम्मानित किया गया।

चंपत राय जैन की कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ:

  • दिगम्बर जैन ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद और व्याख्या
  • जैन धर्म पर लेखन और व्याख्यान के माध्यम से पश्चिमी दुनिया में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार
  • औपनिवेशिक काल में ईसाई मिशनरियों द्वारा फैलाई गई जैन धर्म के बारे में भ्रांतियों का खंडन
  • अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद की स्थापना और जैन समाज में सुधारों को बढ़ावा देना
  • "विद्या-वारिधि" की उपाधि से सम्मानित

चंपत राय जैन एक महान विद्वान, समाज सुधारक और जैन धर्म के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने अपने जीवन को जैन धर्म के प्रचार-प्रसार और जैन समाज के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया।


Champat Rai Jain was a Digambara Jain born in Delhi and who studied and practised law in England. He became an influential Jainism scholar and comparative religion writer between 1910s and 1930s who translated and interpreted Digambara texts. In early 1920s, he became religiously active in India and published essays and articles defending Jainism against misrepresentations by colonial era Christian missionaries, contrasting Jainism and Christianity. He founded Akhil Bharatvarsiya Digambara Jain Parisad in 1923 with the aim of activist reforms and uniting the south Indian and north Indian Digambara community. He visited various European countries to give lectures on Jainism. He was conferred with the title Vidya-Varidhi by Bharata Dharma Mahamandal.



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