
जैन धर्म की नैतिकता
Ethics of Jainism
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Summary
जैन धर्म का नैतिक कोड
जैन धर्म में आचरण के दो मुख्य नियम या धर्म बताए गए हैं - एक साधु बनने के इच्छुक लोगों के लिए और दूसरा श्रावकों (गृहस्थों) के लिए। दोनों ही तरह के अनुयायियों के लिए पाँच मूलभूत व्रत निर्धारित हैं।
पाँच महाव्रत:
- अहिंसा: किसी भी जीव को किसी भी रूप में हानि न पहुँचाना। इसमें शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक सभी प्रकार की हिंसा शामिल है।
- सत्य: हमेशा सत्य बोलना और सत्य का पालन करना। इसमें मिथ्या, कठोर, निंदात्मक और व्यर्थ बातें करना भी शामिल है।
- अस्तेय: चोरी न करना और न ही किसी के धन, वस्तु या अधिकार को अनुचित तरीके से लेना। इसमें बेईमानी, धोखाधड़ी और जालसाजी से बचना भी शामिल है।
- ब्रह्मचर्य: इंद्रियों पर संयम रखना और विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण से बचना। गृहस्थों के लिए यह व्रत विवाह के बंधन में रहकर पवित्रता बनाए रखने का संदेश देता है।
- अपरिग्रह: किसी भी वस्तु, व्यक्ति या भावना से मोह या लगाव न रखना। इसमें धन-संपत्ति, पद-प्रतिष्ठा और सांसारिक सुखों की लालसा से दूर रहना शामिल है।
श्रावक (गृहस्थ) इन पाँचों व्रतों का पालन आंशिक रूप से करते हैं जिन्हें अणुव्रत (छोटे व्रत) कहा जाता है। साधु इन पाँचों व्रतों का पालन पूर्ण रूप से करते हैं और इसीलिए वे पूर्ण संयम का पालन करते हैं।
जैन ग्रंथ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के अनुसार:
"हिंसा के अंतर्गत चोरी, झूठ, व्यभिचार और परिग्रह सभी आते हैं क्योंकि इनमें लिप्त होने से आत्मा की शुद्ध प्रकृति दूषित होती है। शिष्य को उदाहरणों द्वारा समझाने के लिए ही झूठ आदि का उल्लेख अलग से किया गया है।"
पाँच मुख्य व्रतों के अलावा, एक गृहस्थ से सात शील (अनुषांगी व्रत) और अंतिम व्रत सल्लेखना का पालन करने की अपेक्षा की जाती है।
सात शील:
- सीमित क्षेत्र में विचरण: अपने व्यवसाय और जीवन को एक निश्चित क्षेत्र तक सीमित रखना।
- अतिथि सत्कार: मेहमानों और जरूरतमंदों की सेवा करना।
- उपवास: नियमित रूप से उपवास रखकर शरीर और मन को शुद्ध करना।
- दान: जरूरतमंदों को दान देना और दूसरों की सहायता करना।
- स्वाध्याय: धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना और धार्मिक ज्ञान प्राप्त करना।
- व्यायाम: शरीर को स्वस्थ और निरोगी रखने के लिए व्यायाम करना।
- प्रतिदिन मंदिर जाना: प्रतिदिन मंदिर जाकर पूजा-अर्चना करना।
सल्लेखना: यह अंतिम व्रत है जिसे मृत्यु के निकट पहुँचने पर ध्यान, प्रार्थना और उपवास द्वारा शरीर त्यागने के लिए अपनाया जाता है।