Pravachanasara

प्रवचनसार

Pravachanasara

(Religious text of Jainism)

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प्रवचनसार: जैन धर्म का सार

प्रवचनसार जैन धर्म के एक महत्वपूर्ण ग्रंथ का नाम है जिसकी रचना जैन मुनि कुंदकुंद ने दूसरी शताब्दी ईस्वी या उसके बाद की थी। इसका अर्थ है "सिद्धांत का सार" या "शास्त्र का सार"। यह ग्रंथ मुख्य रूप से सही तपस्वी और आध्यात्मिक आचरण के बारे में बताता है जो कुंदकुंद के द्वैतवाद सिद्धांत पर आधारित है।

द्वैतवाद और दिगंबर परंपरा:

कुंदकुंद इस ग्रंथ में दिगंबर साधुओं द्वारा नग्न रहने का तर्क प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि 'मैं' और 'दूसरे' की द्वैतता का अर्थ है कि "न तो मैं दूसरों का हूँ और न ही दूसरे मेरे हैं, इसलिए कुछ भी मेरा नहीं है और एक साधु के जीने का आदर्श तरीका वही है जिस तरह से वह पैदा हुआ था"।

ग्रंथ की संरचना:

यह ग्रंथ प्राकृत भाषा में लिखा गया है और इसमें तीन अध्याय और 275 छंद हैं।

प्रवचनसार के मुख्य बिंदु:

  • द्वैतवाद: कुंदकुंद ने आत्मा और अनात्मा के बीच एक स्पष्ट भेद किया है। उनका मानना ​​था कि आत्मा शुद्ध चेतना है जबकि अनात्मा में पदार्थ, कर्म और अन्य सभी सांसारिक चीजें शामिल हैं।
  • कर्म सिद्धांत: इस ग्रंथ में कर्म सिद्धांत को विस्तार से समझाया गया है। कुंदकुंद ने बताया है कि कैसे हमारे कर्म हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं और कैसे हम साधना के माध्यम से कर्मों से मुक्ति पा सकते हैं।
  • तपस्या और साधना: प्रवचनसार में विभिन्न प्रकार की तपस्या और साधना का वर्णन किया गया है जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक हैं।
  • मोक्ष: ग्रंथ में मोक्ष (मुक्ति) को जीवन का अंतिम लक्ष्य बताया गया है और उसे प्राप्त करने के तरीकों को समझाया गया है।

निष्कर्ष:

प्रवचनसार जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जो आत्मा, कर्म, तपस्या और मोक्ष जैसी महत्वपूर्ण अवधारणाओं पर प्रकाश डालता है। यह ग्रंथ आज भी जैन समुदाय में बहुत सम्मानित है और इसके सिद्धांतों का पालन किया जाता है।


Pravachanasara, is a text composed by Jain monk, Kundakunda, in the second century CE or later. The title means "Essence of the Doctrine" or "Essence of the Scripture", and it largely deals with the correct ascetic and spiritual behavior based on his dualism premise. Kundakunda provides a rationale for nudity among Digambara monks in this text, stating that the duality of self and of others means "neither I belong to others, nor others belong to me, therefore nothing is mine and the ideal way for a monk to live is the way he was born". The text is written in Prakrit language, and it consists of three chapters and 275 verses.



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