
तन्हा
Taṇhā
(Concept in Buddhism, referring to thirst, craving, desire, longing, greed)
Summary
तृष्णा: बौद्ध धर्म में एक महत्वपूर्ण अवधारणा (Trishna: An Important Concept in Buddhism)
"तृष्णा" (Taṇhā), बौद्ध धर्म में एक महत्वपूर्ण शब्द है जिसका अर्थ है "प्यास, इच्छा, लालसा, लोभ"। यह शारीरिक या मानसिक दोनों तरह की हो सकती है। इसे आमतौर पर "लालसा" या "अभिलाषा" के रूप में अनुवादित किया जाता है।
तृष्णा के तीन प्रकार होते हैं:
- काम तृष्णा (Kāma-taṇhā): इंद्रिय सुखों की लालसा, जैसे स्वादिष्ट भोजन, सुंदर वस्त्र, मधुर संगीत आदि।
- भव तृष्णा (Bhava-taṇhā): अस्तित्व की लालसा, यानी बार-बार जन्म लेने और इस संसार में बने रहने की चाहत।
- विभव तृष्णा (Vibhava-taṇhā): अनस्तित्व की लालसा, यानी दुःखों से छुटकारा पाने के लिए मृत्यु या शून्यता की चाहत।
चार आर्य सत्यों (Four Noble Truths) में तृष्णा:
तृष्णा का उल्लेख चार आर्य सत्यों में मिलता है। इन सत्यों के अनुसार, तृष्णा, दुःख (Dukkha) के साथ उत्पन्न होती है और बार-बार जन्म लेने और मरने के चक्र (संसार - Saṃsāra) का कारण बनती है।
विस्तार से:
- दुःख: जीवन में दुःख और असंतोष होना एक सार्वभौमिक सत्य है।
- दुःख समुदय: दुःख का कारण तृष्णा है, जो हमें सांसारिक सुखों और आसक्तियों से बांध कर रखती है।
- दुःख निरोध: तृष्णा का त्याग करके दुःख से मुक्ति संभव है।
- दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा: तृष्णा का त्याग करने और दुःख से मुक्ति पाने का मार्ग अष्टांगिक मार्ग (Eightfold Path) है।
संक्षेप में:
बौद्ध धर्म में, तृष्णा को दुःख का मूल कारण माना जाता है। तृष्णा के कारण ही हम सांसारिक मोह-माया में फंसे रहते हैं और बार-बार जन्म-मरण के चक्र में भटकते रहते हैं। तृष्णा पर विजय प्राप्त करके ही हम दुःखों से मुक्ति पा सकते हैं और निर्वाण (Nirvana) को प्राप्त कर सकते हैं।