
जैन धर्म में कर्म
Karma in Jainism
(Religious principle)
Summary
कर्म: जैन धर्म की नज़र में
कर्म, जैन धर्म के जटिल ब्रह्माण्डीय दर्शन का एक आधारभूत सिद्धांत है। मनुष्य के नैतिक कर्म ही आत्मा (जीव) के पुनर्जन्म के चक्र का आधार बनते हैं। आत्मा इस जन्म-मरण के चक्र (संसार) में तब तक बंधी रहती है, जब तक उसे मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त नहीं हो जाता। मोक्ष प्राप्ति के लिए आत्मा को शुद्धिकरण के मार्ग पर चलना होता है।
जैन धर्म के अनुसार, कर्म एक भौतिक पदार्थ है जो इस ब्रह्मांड में हर जगह व्याप्त है। आत्मा के कर्मों द्वारा कर्म के सूक्ष्म कण आत्मा से आकर्षित होते हैं। जब हम कुछ करते हैं, सोचते हैं, या कहते हैं, जब हम किसी जीव की हत्या करते हैं, झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, तो कर्म के कण आत्मा से बंध जाते हैं। कर्म न केवल पुनर्जन्म का कारण बनता है, बल्कि इसे एक अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ के रूप में भी माना जाता है, जो आत्मा में प्रवेश करके उसके स्वाभाविक, पारदर्शी और शुद्ध गुणों को ढँक देता है। कर्म को एक प्रकार का प्रदूषण माना जाता है, जो आत्मा को विभिन्न रंगों (लेश्या) से दूषित करता है। अपने कर्मों के आधार पर, एक आत्मा विभिन्न लोकों में जन्म लेती है, जैसे स्वर्ग या नर्क, या मनुष्य या जानवर के रूप में।
जैन धर्म में, संसार में व्याप्त असमानताओं, दुखों और पीड़ाओं को कर्म के अस्तित्व का प्रमाण माना जाता है। कर्म के विभिन्न प्रकारों को उनके आत्मा पर पड़ने वाले प्रभावों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। जैन दर्शन कर्म के प्रवाह (आस्रव) और बंधन (बंध) के विभिन्न कारणों को निर्दिष्ट करके कर्म प्रक्रिया को समझाने का प्रयास करता है, और कर्मों के पीछे के इरादों पर भी उतना ही जोर देता है जितना कर्मों पर। जैन कर्म सिद्धांत व्यक्तिगत कार्यों के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी तय करता है, और किसी भी प्रकार की ईश्वरीय कृपा या दंड पर निर्भरता को समाप्त करता है। जैन धर्म यह भी मानता है कि हमारे लिए अपने कर्मों को बदलना और तपस्या और शुद्ध आचरण के माध्यम से कर्म से मुक्ति प्राप्त करना संभव है।