
शांतिनाथ
Shantinatha
(16th Tirthankara in Jainism in current cycle of Jain cosmology)
Summary
शान्तिनाथ: जैन धर्म के सोलहवें तीर्थंकर
शान्तिनाथ, जिन्हें शान्ति के नाम से भी जाना जाता है, वर्तमान युग (अवसर्पिणी) में जैन धर्म के सोलहवें तीर्थंकर हैं।
जन्म और प्रारंभिक जीवन:
परंपरागत कहानियों के अनुसार, शान्तिनाथ का जन्म उत्तर भारत के हस्तिनापुर शहर में इक्ष्वाकू वंश के राजा विश्वसेन और रानी अचिरा के घर हुआ था। उनका जन्म भारतीय कैलेंडर के ज्येष्ठ कृष्ण महीने की तेरहवीं तिथि को हुआ था। शान्तिनाथ एक चक्रवर्ती और कामदेव भी थे। 25 साल की उम्र में, वे राजा बने। राजगद्दी पर 25,000 साल से भी अधिक समय तक शासन करने के बाद, उन्होंने जैन साधु का रूप धारण किया और तपस्या शुरू की।
तपस्या और मोक्ष:
अपने त्याग के बाद, किंवदंतियों के अनुसार, शान्तिनाथ ने बिना भोजन और नींद के यात्रा की। सोलह वर्षों के बाद, केवल ज्ञान प्राप्त करने के बाद, उन्होंने अपना पहला अहार (भोजन) ग्रहण किया। सम्मद शिखरजी पर उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया और सिद्ध बन गए, एक मुक्त आत्मा जिसने अपने सभी कर्मों का नाश कर दिया।
पूजा और प्रतीक:
ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के साथ, शान्तिनाथ पांच तीर्थंकरों में से एक हैं जो जैन धर्म में सबसे अधिक भक्ति पूजा प्राप्त करते हैं। उनके प्रतीकों में उनके प्रतीक के रूप में हिरण, नंदी वृक्ष, गरूड़ यक्ष और निर्वाणी यक्षिणी शामिल हैं।
शान्तिनाथ का महत्व:
शान्तिनाथ को शांति और शांति का प्रतीक माना जाता है। इसलिए लोग आपदाओं और महामारियों को दूर करने के लिए उनकी पूजा करते हैं और उनसे भलाई की कामना करते हैं। अंतिम संस्कारों के दौरान शान्तिनाथ के भजन गाए जाते हैं।
निष्कर्ष:
शान्तिनाथ जैन धर्म में एक महत्वपूर्ण तीर्थंकर हैं। उनका जीवन और शिक्षाएं शांति, त्याग और आत्म-ज्ञान की शिक्षा देती हैं। आज भी, उनके अनुयायी उन्हें पूजते हैं और उनके जीवन से प्रेरणा लेते हैं।