Duḥkha

दुःख

Duḥkha

(Concept in Buddhism, Hinduism and Jainism)

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दुःख: बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण अवधारणा

दुःख, जिसका संस्कृत और पालि दोनों भाषाओं में अर्थ है "असंतोष", "अस्थिरता" या "पीड़ा", बौद्ध, जैन और हिंदू धर्मों में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है।

अर्थ:

"दुःख" शब्द का सटीक अर्थ संदर्भ के आधार पर भिन्न हो सकता है। आम तौर पर इसका अनुवाद "दुख", "पीड़ा" या "असंतोष" के रूप में किया जाता है।

  • बौद्ध धर्म में:

    • बौद्ध धर्म में, दुःख चार आर्य सत्यों में से पहला है और अस्तित्व के तीन लक्षणों में से एक है। यह जीवन की क्षणभंगुरता, अनित्यता और अस्थायित्व की ओर इशारा करता है।
    • यह केवल शारीरिक पीड़ा तक सीमित नहीं है, बल्कि मानसिक पीड़ा, असंतोष, इच्छाओं की पूर्ति न होने पर होने वाली व्यथा, और यहां तक कि सांसारिक सुखों में भी निहित क्षणिकता को भी शामिल करता है।
    • बौद्ध धर्म के अनुसार, दुःख का मूल कारण तृष्णा (लालसा) और अविद्या (अज्ञान) है।
  • जैन धर्म में:

    • जैन धर्म में भी दुःख को जीवन का एक अभिन्न अंग माना गया है।
    • जैन धर्म कर्म के सिद्धांत पर जोर देता है, जिसके अनुसार हमारे कर्म ही हमारे दुखों का कारण हैं।
  • हिंदू धर्म में:

    • उपनिषद जैसे हिंदू धर्मग्रंथों में भी मोक्ष (आध्यात्मिक मुक्ति) की चर्चा के संदर्भ में दुःख का उल्लेख मिलता है।
    • हिंदू धर्म में दुःख को जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, बीमारी और इच्छाओं की पूर्ति न होने जैसे कष्टों से जोड़ा जाता है।

व्युत्पत्ति:

हालांकि "दुःख" शब्द को अक्सर उपसर्ग "दु" ("बुरा" या "कठिन") और मूल "ख" ("खाली", "छेद") से लिया गया माना जाता है, जिसका अर्थ है "एक बुरी तरह से फिटिंग वाला धुरा-छेद एक गाड़ी या रथ का जो "एक बहुत ही ऊबड़ सवारी" देता है।

वास्तव में, यह शब्द "दुः + स्था", अर्थात "बुरी तरह से खड़ा होना, अस्थिर" से लिया गया हो सकता है, जिसका अर्थ है "अस्थिर", "अस्थिर"।

निष्कर्ष:

कुल मिलाकर, दुःख पूर्वी धर्मों में एक बहुआयामी अवधारणा है जो जीवन की असंतोषजनक और पीड़ादायक प्रकृति को दर्शाती है।


Duḥkha (Sanskrit; Pali: dukkha), 'unease', "standing unstable," commonly translated as "suffering", "pain", or "unhappiness", is an important concept in Buddhism, Jainism and Hinduism. Its meaning depends on the context, and may refer more specifically to the "unsatisfactoriness" or "unease" of mundane life, not being at ease when driven by craving/grasping and ignorance.



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